महाभारत की कथा सिर्फ एक कालखंड की कहानी नहीं है, बल्कि यह गाथा खुद में एक कालचक्र ही है. समय का पहिया अपनी धुरी पर घूमता रहता है, गाथाएं बुनती जाती हैं. इन गाथाओं के पात्र बनती है जीवात्मा. कर्मों से मिलती है जीवात्मा को पहचान और यही पहचान बन जाते हैं नाम. कोई भीष्म, कोई य़ुधिष्ठिर, कोई अभिमन्यु, कोई विदुर तो कोई धृतराष्ट्र-पांडु या कौरव-पांडवों की भीड़.भूत-वर्तमान और भविष्य तीनों ही इसी कालचक्र की परिधि पर रहने वाले एक पहलू हैं.
हस्तिनापुर इसी कालचक्र की परिधि पर बसी एक नगरी है, जहां का राजा शांतनु अपनी प्रिय पत्नी गंगा के प्रेम में मगन है. राज्य के अधिकारी कर्मशील हैं, इसलिए प्रजा सुखी है, लेकिन भीतर ही भीतर एक डर तो बना ही हुआ है.
वृद्ध और अनुभवी महामंत्री ने सेनापति को यह समझाकर तो लौटा दिया था कि राजा भी मनुष्य होता है, इस नाते उसे भी मनुष्यों के ही समान प्रेम और भोग-विलास का अधिकार तो है ही. इसलिए पुत्र जन्म की प्रतीक्षा तक हमें सब्र रखना चाहिए. वृद्ध मंत्री की बात का मान कालचक्र ने भी रखा और वह टकटकी लगाए राजा के निजी कक्ष के द्वार पर देखता रहा. एक दिन एक दासी ने बाहर सूचना भिजवायी कि महारानी गंगा का स्वास्थ्य ठीक नहीं हैं, महामंत्री राजवैद्य को बुलवा लें. वैद्य आए, उन्होंने देवी गंगा की नाड़ी देखी. श्वांस का प्रवाह परखा और फिर शुभ लक्षणों को देखकर महाराज को बधाई दी. हस्तिनापुर के राजमहल में किलकारी गूंजने को थी. महारानी गंगा गर्भवती थीं और महाराज शांतनु पिता बनने वाले थे.
यहां तक की कथा सुनाकर वैशंपायन जी ने कहा- महाराज जनमेजय! आपके पूर्वज शांतनु ने जब सुना कि वह पिता बनने वाले हैं तो उन्होंने ब्राह्मणों को भोजन कराया, उन्हें स्वर्ण जड़ित गऊओं का दान किया, प्रजा के लिए रत्न भंडार खोल दिए और महल के दास-दसियों को भी सोने-चांदी के उपहार देकर संतुष्ट किया. इसी के साथ महाराज शांतनु राज दरबार में लौट आए और खुद में ही यह समझकर, कि इतने दिनों तक वह राजकाज से मुंह फेरे रहे फिर भी सबकुछ व्यस्थित रहा, इसके लिए उन्होंने वृद्ध महामंत्री और सेनापति का बार-बार आभार जताया.
हस्तिनापुर में एक बार फिर सुख की वर्षा होने लगी और चारों ओर शांति ही शांति विराजने लगी. लेकिन कौन जाने, यह शांति चक्रवात (तूफान) के आने से पहले की शांति थी. इतना कहकर ऋषि वैशंपायन कुछ रुके. राजा जन्मेजय, जो इस प्रसंग को सुन रहे थे, उन्होंने पूछा- ऐसा क्या होने वाला था ऋषिवर, जो हस्तिनापुर की शांति को आप संकट से पूर्व की शांति कह रहे हैं.
महाराज जन्मेजय! ऐसा मैंने इसलिए कहा- क्योंकि आगे जो घटना घटी, वह बहुत मन को भेद देने वाली है. बहुत दुखद है और इतिहास में ऐसा पहले कभी हुआ, इसका कोई उदाहरण नही मिलता है, लेकिन जैसा कि मैंने आपसे पहले कहा- यह कथा सिर्फ एक युद्ध की कथा नहीं है, यह जीवात्मा और उसके कर्मों के परिणाम की कथा है तो जिसकी भूमिका तो पहले ही रची जा चुकी थी.
जनमेजय ने पूछा- ऐसा क्या हुआ था भगवन?
ऋषि वैशंपायन ने कहा- महाराज जनमेजय! महारानी के गर्भवती होने का समाचार सुनने के बाद हस्तिनापुर में उत्सव का माहौल था. सभी बहुत ही उतावलेपन से राजकुमार के जन्म की प्रतीक्षा कर रहे थे. देवी गंगा का गर्भकाल पूरा हुआ और एक दिन के कक्ष से शिशु के प्रथम रूदन (रोने की पहली आवाज) की आवाज सुनाई दी. प्रसूति गृह (जिस कमरे में बच्चे का जन्म हुआ) से दासियों का एक समूह दौड़कर महाराज को बताने पहुंचा कि राजकुमार का जन्म हुआ है. राजा ने उन सभी को अपने हार, आभूषण, किसी को अंगूठी, किसी को मणि आदि भेंट कर दी. फिर वह जैसे ही प्रसूति कक्ष की ओर चलने लगे तो देखते हैं कि नवजात को हृदय से लगाए, आंचल और अन्य वस्त्रों को देह पर यूं ही लपेटे, प्रसूति गृह से निकली महारानी गंगा महल के बाहर जा रही हैं.
राजा उन्हें आवाज देते, तब तक तेज चाल से चलती गंगा महल की सीमा से बाहर पहुंच गईं और गंगातट की ओर चल पड़ीं. राजन, लोकलाज के कारण भी तुरंत कुछ नहीं कह सके, इसलिए जिज्ञासा में वह अपनी रानी गंगा के पीछे-पीछे चल दिए. गंगातट पर पहुंचते देवी गंगा ने अपने पुत्र और कुरुकुल के इस वंश को अपनी छाती से लगाया, उसका मस्तक चूमा. शरीर को उसके वस्त्रों से कोमलता से ढका और देखते ही देखते गंगा नदी की तेज धारा में यूं छोड़ दिया, जैसे पूजा के फूल. देवी गंगा ने उसे बहते हुए देखकर कहा- इसी में तुम्हारा कल्याण था पुत्र. वह नवजात रोते हुआ कुछ देर तो बहा और फिर गंगा की गहराइयों में समा गया. महाराज शांतनु ये दृश्य देखकर सुध ही खो बैठे, वह चीखना चाहते थे, गंगा को रोकना चाहते थे, लेकिन उनकी देह को तो जैसे काठ मार गया था. हस्तिनापुर की महारानी गंगा ने अपने पहले पुत्र को, नवजात राजकुमार को गंगा में डुबो दिया. यह बात चारों ओर चर्चा का विषय बन गई. हस्तिनापुर में शोक के बादल घिर आए.
जनमेजय ने पूछा, तो क्या हस्तिनापुर नरेश महाराज शांतनु चुप रहे? उन्होंने देवी गंगा को क्या दंड दिया? ऋषि वैशंपायन बोले- चुप रहना ही उनका भाग्य था और दुर्भाग्य भी. यह चुनाव भी उनका खुद का ही था. गंगा ने तो पहले ही तय कर लिया था कि अगर महाराज ने कभी उसे रोकने की कोशिश की तो वह उन्हें छोड़कर चली जाएगी. बस इसी डर से महाराज चाहकर भी गंगा को कुछ नहीं कह सके. उनके पिता महाराज प्रतीप ने भी उन्हें यही आदेश दिया था कि जब एक स्त्री विवाह का प्रस्ताव लेकर आए तो उसे बिना जांच-परख और प्रश्न के ही स्वीकार कर लेना. इन्हीं अनुबंधों के कारण महाराज का गंगा से एक लंबे अंतराल तक संबंध बना रहा.
जिसका परिणाम यह हुआ कि महारानी गंगा ने समय-समय पर महाराज के छह और पुत्रों को जन्म दिया और जन्म के बाद एक-एक कर उन्हें गंगा में डुबो आईं.महाराज हर बार उनके पीछे जाते, उनको रोकने की कोशिश करते, लेकिन सिर्फ पुत्र वियोग में चीख मारकर रह जाते. गंगा हर बार उनकी ओर एक हल्की लजाई हुई सी मुस्कान यूं छोड़कर निकलतीं, जैसे कुछ हुआ ही न हो. महाराज शांतनु का हतभाग्य कि वह गंगा के इस कृत्य पर न प्रश्न कर सकते थे और न ही उसे बुरे वचन कह सकते थे. महाराज एक बार फिर प्रश्नों की बोझ बनी गठरी और रहस्यों का पिटारा कंधे पर लादे हुए महल लौट आए. दुख के दिन लंबे खिंचते, लेकिन उनकी भी अपनी ही सीमा होती है, इसलिए सुख को आना ही होता ताकि वह जल्दी ही बीते और फिर अधिक गहरे दुख का वज्रपात हो सके.
ऐसे ही किसी दिन, रानी गंगा के कक्ष से फिर यह समाचार आया कि वह आठवीं बार गर्भवती हैं, लेकिन इस बार महाराज ने कोई प्रसन्नता नहीं दिखाई, बल्कि वह एक और नवजात की असमय मृत्यु की कल्पना से जड़ हो गए और इसी चिंता में खोए हुए रहने लगे. समय पर महारानी ने एक स्वस्थ और शुभ लक्षणों से युक्त बालक को जन्म दिया. उन्होंने उसे दुग्धपान कराया, सीने से लगाया और फिर वही प्रक्रिया… देवी गंगा अपने आठवें पुत्र को लेकर भी राजमहल से बाहर आ गईं.
इधर, महाराज शांतनु से इस बार रहा नहीं गया और वह बड़े ही आवेग में गंगा के पीछे चल पड़े. उन्होंने गंगा को आवाज देकर कई बार पुकारा. उन्हें रोका, लेकिन गंगा रुकीं नहीं नदी तट की ओर बढ़ती रहीं. लहरों के पास पहुंच कर उन्होंने जैसे ही हस्तिनापुर के आठवें राजकुमार को गंगा नदी में डुबोने के लिए उठाया, तुरंत ही महाराज शांतनु ने उनके हाथ पकड़ लिए और बालक को छीन लिया. इसके साथ ही वर्षों का जो क्रोध उनके भीतर समाया था, वह सब एक साथ निकल पड़ा.
उन्होंने महारानी गंगा को कुल घातिनी, कुल नाशिनी कहा. बोले- तू किस मद में होकर अपनी ही कोख उजाड़ती जा रही है. पुत्रघातिनी! तू किसकी कन्या है? वास्तव में तू कौन है? मेरे जीवन में क्यों आई है? इस पुत्र को तू छोड़ दे. इसे न मार. इसे जीवित रहने दे. तू क्यों नहीं सोचती प्रजा तुझ पर क्या-क्या लांछन लगा रही है. ये कौन सा श्राप लगा है हस्तिनापुर को. राज्य पर ऐसी विपत्ति का भार डाल देने वाली तू कौन है, ये क्या रहस्य है? विवाह से पहले ही ‘आप मुझे रोकेंगे-टोकेंगे नहीं’ का अनुबंध करने वाली देवी गंगा महाराज शांतनु की ये सारी क्रोधभरी बातें सुनती रहीं. उन्होंने कोई प्रतिवाद नहीं किया, जब बोलते-बोलते महाराज खुद थक गए और शांत होकर वहीं गंगा तट पर बैठ गए तब देवी गंगा ने हृदय को शीतलता देने वाली वाणी से कहा.
महाराज! शांत हो जाइए. आपको इस तरह उन्मादी हो जाना और धैर्य छोड़ देना शोभा नहीं देता. यह आपका गुण नहीं है. आपको देखकर सभी शांति का अनुभव करते हैं तभी आपका नाम शांतनु है. इसलिए शांति रखिए, धीरज रखिए. इस तरह गंगा ने महाराज शांतनु को धीरज धारण करने के लिए कहा और जब महाराज शांतनु कुछ शांत हुए तब फिर से महारानी गंगा ने अपनी बात कहनी प्रारंभ की. गंगा ने कहा- क्रोध में कही गई कई बातों के बीच आपने एक बात ठीक ही कह दी है. आपने कहा- हस्तिनापुर को ये कौन सा श्राप लगा है? तो मैं आपको बताना चाहती हूं कि श्राप हस्तिनापुर को नहीं मुझे मिला था. सिर्फ मुझे ही नहीं ये श्राप आपको भी मिला था. हम दोनों इस जीवन में अपने-अपने श्राप ही तो भोग रहे हैं महाराज. शांतनु ने आश्चर्य भरे शब्दों में पूछा- श्राप! कैसा श्राप गंगे, मुझे बताओ गंगे, मैं धैर्य नहीं धारण कर पा रहा हूं. मुझे सारे रहस्य बताओ गंगे.
गंगा ने उत्तर दिया- महाराज ये श्राप आज का नहीं है, इस जन्म का भी नहीं है. यह श्राप तो खुद विधाता ने अपनी लेखनी से हमारे भाग्य में लिखा था. मैं आपको स्मरण कराती हूं. एक समय था कि आप इस समस्त पृथ्वी के राजा महाराज महाभिषक थे. आपका प्रताप चारों दिशाओं में था और इतना बढ़ गया था कि देवराज इंद्र आपके मित्र थे. इस मित्रता संबंध के रूप में आप स्वर्गलोक की भी सेवा बढ़ाते थे और इंद्र के महाविलास कार्यक्रमों में तो आपका विशेष स्थान होता था. ऐसे ही एक दिन देवराज की सभा में नृत्य का कार्यक्रम हो रहा था. उसी समय अपने पिता ब्रह्मदेव के साथ मेरा भी आगमन उस महाविलास में हुआ. मैं अपने पिता के बगल में खड़ी थी. सभी देवताओं ने उन्हें प्रणाम किया. आपने भी किया और इसी दौरान हम दोनों ने एक-दूसरे को देखा और एकटक देखते रहे.
हवा के झोंके से मेरा आंचल उड़ गया. देवताओं ने तो लाज के मारे आंखें नीचीं कर लीं, लेकिन मैं और आप एक-दूसरे को देखते रहे.
पिता ब्रह्मदेव हमारे इस आचरण को मर्यादा का उल्लंघन माना और हमें एक साथ ही श्राप दिया. वह बड़े क्रोध में भरकर बोले- महाभिषक, तुमने मर्यादा तोड़ी है. नारी का आंचल उड़ा और तुम देखते रहे, यह तुम्हारी भूल है और गंगा तुमने कोई विरोध नहीं किया, मर्यादा हीनता में महाभिषक का साथ दिया. मैं तुम दोनों को श्राप देता हूं कि जाओ पृथ्वी लोक में जन्म लो. उनका श्राप यह था कि जिस दिन आप मुझसे क्रोध में वचन कहेंगे तो उसी दिन मैं श्राप से मुक्त हो जाऊंगी. इसका यह भी अर्थ है कि अब धरती रहने की मेरी अवधि पूरी हुई. अब मुझे आप को छोड़कर जाना ही होगा. मैंने आपसे प्रेम किया, आपने मुझे उसका पूरा मान दिया. मैं इस महान हस्तिनापुर की महारानी रही.
यह सभी कुछ मेरे जीवन में उपलब्धि और उपहार की तरह रहेगा. मैं आपकी सामने बह रही यही देवनदी गंगा हूं. इसी की धारा से मेरा जन्म हुआ था और इसी में समा जाना ही मेरे जीवन की पूर्णता है. वैसे भी नदियां कहां ठहर कर रह सकती हैं. इसलिए कालचक्र के नियमों में बंधे हम दोनों को अब आगे बढ़ना ही होगा. मुझे अपनी इन लहरों में और आपको इस जीवन में.
इतना कहकर गंगा चुप हो गईं. तट पर बैठे महाराज शांतनु अवाक् थे. वह अब न कुछ बोल पा रहे थे और न ही कुछ कर पा रहे थे. उनके हाथों में गंगा से ही जन्मा उनका नवजात पुत्र था. गंगा ने उसे रोते देखकर अपने हाथों में ले लिया और उसका माथा सहलाते हुए उसे अपनी छाती से लगा लिया. महाराज शांतनु एकटक उस बालक को देखते रहे. फिर सहसा जैसे उन्हें कुछ याद सा आया और वह चौंक के उठे हों, कुछ ऐसी ही अवस्था में देवी गंगा से पूछा- अच्छा गंगे! ये बताओ इन नवजात बालकों का क्या दोष था? तुमने इन्हें क्यों मृत्यु को सौंप दिया? गंगा ने कहा- मैं इसी प्रश्न की प्रतीक्षा कर रही थी महाराज. बिना आपके इस प्रश्न पूछे और इसका उत्तर दिए बिना न मेरी मुक्ति हो सकती थी, न आपकी और न ही उन नवजात बालकों की. मैंने उन्हें मृत्यु नहीं दी महाराज, उन्हें मुक्ति दी है.
शांतनु बोले- मुक्ति, कैसी मुक्ति?
गंगा ने कहा- आप फिर भूल रहे हैं महाराज, मैंने आपको बताया मैं यही बहती हुई गंगा नदी हूं. मैं जह्नू ऋषि की पुत्री भी कहलाती हूं, इसलिए मेरा एक नाम जाह्नवी गंगा भी है. मेरे वह पुत्र मेरी ही गोद में खेल रहे हैं. वह भी इस रूप में अपना एक श्राप ही जीने आए थे. मेरे ऊपर उन्हें उस श्राप से मुक्त करने का दायित्व था. ब्रह्म देव से श्रापित होने के बाद आपने विचार किया कि आप महाराज प्रतीप के घर में जन्म लेंगे, क्योंकि उस समय संसार में उनसे अधिक प्रतापी-शक्तिशाली कोई नहीं था. उधर, मैं भी अपने इस श्राप से दुखी होकर मृत्यु लोक की ओर बढ़ रही थी. इतने में मार्ग में मुझे देवलोक के सम्मानित अष्ट वसु मिले.
वे सभी बहुत कमजोर हो गए थे और बहुत दुखी भी थे. मैंने उनसे इसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि महर्षि वशिष्ठ ने उन्हें मृत्युलोक में जन्म लेने का श्राप दिया है. उन वसुओं से ऋषि वशिष्ठ की गाय नंदिनी के अपहरण का अपराध हुआ था. तब उनकी दैवीय शक्ति नष्ट हो गई और उन्हें मनुष्यों की तरह जन्म लेना पड़ा. अष्ट वसुओं ने मुझसे प्रार्थना करते हुए कहा- वह मृत्युलोक में मेरे ही गर्भ से जन्म लेना चाहते हैं और गंगा ही उनकी माता हो. ऐसा वर मांगने के बाद उन्होंने मुझसे यह भी कहा- वह अधिक समय तक मृत्युलोक में नहीं रहना चाहते हैं, इसलिए जन्म लेते ही आप हमारे लिए यह प्रिय कार्य कीजिएगा कि हमें तुरंत गंगाधारा में बहा दीजिएगा.
तब मैंने ही उनसे कहा कि मैं तुम्हारे लिए यह कार्य कर दूंगी, लेकिन लोक जगत में यह व्यवहारिक नहीं होगा. राजपरिवार का कम से कम एक राजपुत्र भी तो जीवित होना चाहिए. तब उन वसुओं ने मुझे बताया कि वशिष्ठ ऋषि का श्राप भी ऐसा ही है. सात वसुओं को तो जन्म लेते ही मुक्ति मिल जाएगी, लेकिन आठवें वसु को मृत्युलोक पर जीवन बिताना ही होगा, वह संपूर्ण जीवन जीकर ही और दीर्घायु होकर ही वसुओं के लोक में वापसी कर सकेगा. सात वसुओं को तो मैंने शीघ्र ही बहाकर मुक्त कर दिया, लेकिन इस आठवें वसु को जीना ही था. मेरे कहने पर ही सभी वसुओं के एक-एक अंश और आठवें वसु के पूर्ण अवतार के रूप में यह जन्मा है. विधाता के इसी लेख के प्रभाव में आपने इसे गंगा में बहाने से रोककर इसके प्राण बचा लिए हैं. मैंने इस बालक का नाम देवव्रत रखा है. कौन जाने भविष्य के किसी समय में यह किस तरह और किस नाम से याद किया जाए. आपका यह बालक जीवित रहेगा और आपका यश बढ़ाने वाला रहेगा महाराज.
इतना कहकर देवी गंगा कुछ क्षण मौन रहीं और उन्होंने फिर से बोलना प्रारंभ किया. महाराज शांतनु हतप्रभ खड़े, भौचक से सिर्फ उन्हें देख रहे थे, सुन रहे थे. अपने जीवन के रहस्य देखते हुए उन्होंने तीनों कालों के दर्शन कर लिए थे. देवी गंगा ने कहा- भले ही यह पुत्र आपका यश बढ़ाएगा, लेकिन फिर भी आप इसे मुझे दे दीजिए. मैं जानती हूं कि हस्तिनापुर की वंशावली जन्म नहीं कर्मप्रधान रही है. इसलिए मैं मां का दायित्व निभाऊंगी. इसे अपने साथ ले जाकर परिपक्व बनाकर और हर शिक्षा से पूर्ण करके आपको दूंगी. फिर कुछ देर ठहर कर गंगा ने कहा- अब अपनी इस सेविका को जाने की आज्ञा दीजिए महाराज! तय समय से अधिक कोई कहीं नहीं रुक सकता. किसी को ऐसे रोकना भी ठीक नहीं. आपका प्रेम मेरे लिए अनमोल मोती है. अब चलती हूं. इतना कहकर गंगा सहज ही लहरों पर चलने लगीं और आगे बढ़ने लगी.
महाराज शांतनु ने गंगा को जाते देखा तो उनसे लौट आने के लिए बहुत कहा, साथ चलने-साथ रहने के लिए मनाया, लेकिन गंगा उनके देखते-देखते लहरों में समा गई और धरती से आकाश की ओर चली गई. निराश-हताश महाराज शांतनु राजधानी वापस लौट आए. उनके निराश हृदय में इतना अंधकार बैठ गया कि समूचे हस्तिनापुर में ही अंधेरा रहने लगा. प्रजा में जिसने यह सब सुना उसने ही दांतों-तली अंगुली दबा ली और महाराज शांतनु के दुर्भाग्य पर रोने लगे. हस्तिनापुर में अब कोई हंसता नहीं था. सिर्फ मुर्दा उदासी ही वहां रहती थी. राजमहल में दीप जलते, लेकिन प्रकाश नहीं करते और महाराज शांतनु, सिर्फ अपने कक्ष के उस झरोखे से बाहर देखते रहते थे जिससे गंगा का अनुपम तट दिखाई देता था.
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दूसरा भाग : राजा जनमेजय और उनके भाइयों को क्यों मिला कुतिया से श्राप, कैसे सामने आई महाभारत की गाथा?
तीसरा भाग : राजा जनमेजय ने क्यों लिया नाग यज्ञ का फैसला, कैसे हुआ सर्पों का जन्म?
चौथा भाग : महाभारत कथाः नागों को क्यों उनकी मां ने ही दिया अग्नि में भस्म होने का श्राप, गरुड़ कैसे बन गए भगवान विष्णु के वाहन?
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