कुछ घर-वापसियां सुकून नहीं देतीं, बल्कि रातों को झकझोरकर उठा देती हैं. ‘कनैडा’ और ‘अमरीका’ से लौटे युवा इसी अधबीच में अटके हुए हैं. स्टूडेंट वीजा लेकर बाहर पहुंचे बहुत से बच्चे ‘लंबी छुट्टी’ पर वापस आ चुके. कई जान जोखिम में डाल अमेरिका पहुंचे, सिर्फ इसलिए कि एक रोज ‘स्टिंकी रैट’ के पुछल्ले के साथ वापस भेज दिए जाएं.
कनाडा में रहते हिंदुस्तानियों की हालत बहुत खराब हैं. खासकर लड़कियों की. किराया बचाने के लिए वे कई-कई अनजान लड़कों के साथ रह रही हैं. खुद मुझे एक बंदी ने अप्रोच किया था कि मैं उसे अपने कमरे में रख लूं. चमक-दमक वाली रील्स देख झोंक में मैं चला तो गया, लेकिन दो महीने भी नहीं टिक पाया. वहां न काम है, न इज्जत. यही हाल अमेरिका में है.
कपूरथला के सुमीत सिंह अपने इलाके के माने हुए फिटनेस कोच हैं. वे कहते हैं- कनाडा में अपने भी अपने नहीं. मुझे जिन्होंने बुलाया था, वही बचने लगे. खोजने पर भी काम नहीं था. सप्लाई इतनी ज्यादा हो चुकी कि डिमांड खत्म है.
लोग कम पैसों में कुछ भी करने को राजी रहते हैं. बहुतेरे टेंट्स में रहते और लंगर खाते हैं. इससे तो अपना पिंड भला!
दरम्यानी उम्र का ये शख्स वर्क वीजा पर कनाडा गया था. नया चलन. स्टूडेंट वीजा पाना अब आसान नहीं. वर्क परमिट भी कई गुना ज्यादा कीमत पर बिकता है. ब्लैक टिकट की तरह.
ओटावा और दिल्ली तनाव के बीच बदले वीजा नियमों ने पंजाब के भीतर भी काफी कुछ बदल दिया. अंग्रेजी सिखाने वाले सेंटरों पर ताला पड़ रहा है. और वीजा दिलाने वाले एजेंट नया काम तलाश रहे हैं. बाहर गए बहुत से लोग वापस लौट चुके. झेंप मिटाने के लिए वे इसे लंबी छुट्टी बताते हैं. जो बाकी हैं, वे डरे हुए कि जाने कब उनका भी टिकट कट जाए.
पंजाब के जालंधर शहर जाइए तो घरों में जहाज के आकार की पानी की टंकियां दिख जाएंगी. इससे सटा हुआ है कपूरथला. NRI बेल्ट कहलाते इस हिस्से में बच्चे पतंग भी उड़ाते हैं तो कनाडा के झंडे वाली.
यहां सरसराती गाड़ियों के आगे-पीछे कनाडा ही नहीं, यूएस और यूरोप के झंडे दिख जाएंगे. सड़क पर चलता हर चौथा शख्स बाहर रहकर आ चुका. जो बाकी हैं, वो जाने की तैयारियों में हैं.
तेज चलती इस गाड़ी में हाल में एकदम से ब्रेक लगता दिखा. कनाडा ने वीजा रूल्स में सख्ती कर दी. बदली हुई अमेरिकी सरकार भी वेलकम के खास मूड में नहीं. छापेमारियां होने लगीं. अवैध ढंग से पहुंचे लोगों की छंटनियां होने लगीं.
हजारों किलोमीटर दूर आए इस तूफान के थपेड़े पंजाब के छोटे-छोटे गांवों तक हलचल मचाए हुए हैं.
एक दूसरी रिपोर्ट पर काम के लिए हम कपूरथला में थे, जब जसप्रीत से मुलाकात हुई. वो अपने परिवार के लिए ‘गॉड से प्रे’ करवाना चाहती थीं. लगभग 25 साल की ये लड़की एक बार अमेरिका से लौटाई जा चुकी. दोबारा जाने की तैयारी थी कि तभी वहां सरकार बदल गई.
पास्टर के साथ पूजा-पाठ के बाद वे हमसे मिलती हैं. चेहरे पर उम्मीद के अलावा बाकी सारे रंग. थोड़ी मान-मनौवल के बाद बातचीत चल पड़ती है.
अमेरिका में जिंदगी कैसी थी?
हम जॉब करते. राशन की दुकान जाते. बच्चों को स्कूल छोड़ते. दूध-साग लाते. दिन भर वो सारे काम करते थे, जो आम अमेरिकी परिवार करते हैं. फर्क बस इतना था कि हम हर वक्त डरे रहते. मामूली काम के लिए भी घर से बाहर जाते हुए बच-बचकर चलना होता कि कहीं पकड़े न जाएं.
वहां रहने के लिए लिए हमने डॉग और स्टिंकी रैट जैसी गाली भी मुंह सिलकर सुन ली. एक बार स्टोर पर किसी ने मुझपर थूक दिया था. बताते हुए युवती अनजाने ही मुंह पोंछने लगती है, जैसे अदृश्य गंदगी अब भी चेहरे पर लगी हो.
फिर!
मैं चेहरा धोकर काम करती रही. अमरीका जाने से पहले एजेंट ने हमसे कहा था- ‘एक्ट नॉर्मल’. कोई चाहे तमाचा मारे या पगार ही काट ले, हमें चुप रहना है. न तो हम पुलिस में शिकायत कर सकते हैं, न खुद ही मारपीट कर सकते हैं.
क्यों?
क्योंकि हम डंकी रूट से वहां पहुंचे थे.
लोग कभी हमारे रंग का मजाक उड़ाते, कभी अंग्रेजी का.
एक बार पार्क में किसी ने मेरी फोटो खींच ली. गलती उसने की थी और डरी हुई मैं थी. पिंड होता तो अव्वल तो उसकी हिम्मत ही नहीं होती, और कर भी ले तो मैं खुद गिरेबान पकड़ लेती. लेकिन वहां मैं एकदम चुप रही. उसके बाद दोबारा कभी उस पार्क में नहीं गई. धड़का लगा रहता कि किसी भी रोज कोई पकड़कर पुलिस के हवाले कर देगा.
अमेरिका में कहां रहती हैं, और क्या करती थीं?
कैलिफोर्निया में. काम का तो ऐसा है कि जो जुट जाए, वो कर लेते. बंदों को फिर भी जॉब मिल जाता है, लेकिन जनानियों के लिए थोड़ा मुश्किल है. पहले से जमे पंजाबी-गुजराती परिवारों में नैनी का काम किया. कुछ साल पहले बस चुके परिवार. दनदन अंग्रेजी बोलते ये लोग हंसते कि तुम्हारी बोली में ‘एक्सेंट’ हैं, बच्चा भी गलत बोलने लगेगा. आया के काम के लिए बुलाते और घर के सारे काम करवाते. 12 से 14 घंटे काम के बदले कुछ डॉलर.
जब काम नहीं होता था, तो भी डर रहता था. जोर की आवाज आए या दरवाजे पर दस्तक हो तो शक होता कि पुलिस सामने मिलेगी.
हर दिन, हर मिनट एक लड़ाई थी. छिपने की. न पहचाने जाने की. यहां गांव में जितने लोग पहचाने, हम उतने बड़े आदमी. वहां इसका उल्टा था. हम तभी तक सेफ थे, जब तक ‘इनविजिबल’ थे.
आपके पास पूरे कागज नहीं थे, ऐसे में किराए पर घर वगैरह कैसे मिला?
पासपोर्ट तो था लेकिन अमेरिका में रहने की पर्मिशन नहीं थी. हम डंकी लगाकर पहुंचे थे. जाते ही वकील को केस दे दिया. वो भी काइयां. लगातार पैसे मांगता. हम जैसे बहुत से पंजाबी-हरियाणवी परिवार उसके क्लाइंट हैं. उसी ने घर दिलवाया. आसपास हम जैसे ही लोग थे. मान लीजिए कि जैसे आपके यहां (दिल्ली में) बाहरियों की बस्तियां हैं, वैसे ही कैलिफोर्निया में हमारी कॉलोनी थी.
पंजाबी पहरावे और ठेठ जबान के बीच एक-दो शब्द अंग्रेजी के जोड़ती इस लड़की को पूरा रूट याद है.
कैसे, किस रास्ते से और लगभग कितने दिनों में अमेरिका पहुंचा जा सकता है. कितना खर्च आएगा. कहां पर वकील मिलेंगे. केस देने के बाद कैसे काम खोजना है, या नौकरी न मिले तो कहां जाकर पेट भरा जाए.
घर के पास ही सूप किचन था. शुरू-शुरू में रोज वहां जाते. यहां खाना पकाती तो चार बे-बताए मेहमान आ जाएं तब भी रोटियां कम न पड़ीं. वहां दूसरों के आगे हाथ फैलाते थे. पति ने एक बार एक्स्ट्रा ब्रेड मांगा तो सर्वर ने साफ मना कर दिया. खाने के शौकीन पति चुप लगाकर रह गए. मैं साथ ही थी. इतनी भी हिम्मत न पड़ी कि उन्हें अपनी ब्रेड दे दूं. इसके बाद भी कई बार उस सूप किचन में जाना पड़ा.
इतनी जिल्लत सिर्फ अमेरिका के लिए. वो भी नहीं मिल सका.
लौटना कैसे हुआ?
वो पेट्रोल पंप पर काम करते थे. वहां छापा पड़ गया. पूछताछ हुई और हम बॉर्डर डिटेंशन कैंप में थे. वकील को कॉल किया, लेकिन उसके पास भी ज्यादा ‘बेस’ नहीं था. वापस भेजने तक हम वहीं कैंप में रहे.
कैंप माने जेल!
हां, जेल ही मानिए. हमारे जैसे और बहुत लोग वहां थे. दूसरे देशों के भी. छोटे-छोटे बच्चों वाली औरतें. 20-25 लोग एक कमरे में ठुंसे हुए. सब पारी लगाकर सोते. बाकी बैठी रहती थीं. खाना यहां भी आधा-अधूरा मिलता. लेकिन जो चीज सबसे ज्यादा याद है, वो है गंध. सटा हुआ टॉयलेट कई-कई दिन तक वैसा ही रहता. ठंड इतनी कि सफाई की हिम्मत न पड़े. स्टाफ था तो लेकिन हमारी गंदगी वे क्यों साफ करते. लौटने के बाद भी हफ्तों नाक में वही गंध बनी रही.
इतना कुछ होने के बाद भी वापस जाने की जुगत भिड़ा रही जसप्रीत रोज ‘प्रे’ करवाने आती हैं. वे कहती हैं- पंजाबी देहरी छूकर लौटने के लिए बाहर नहीं जाते. कुछ साल रहकर पैसे कमाएंगे, फिर भले अपने गांव लौट आएं.
लेकिन अमेरिका में तो नई सरकार आ चुकी, कहते हैं, सख्ती होगी! मैं शक का कंकड़ उछालती हूं.
हां, वो तो है. इसलिए ही तो परमेश्वर से प्रेयर करवा रही हूं.
मजहबी पंजाबी समुदाय से ताल्लुक रखती इस युवती ने बाहर जाने के लिए बहुत-कुछ बदल लिया. अनाधिकारिक तौर पर धर्म भी.
तो क्या बदला हुआ मजहब किसी तरह की मदद करता है?
इनकार करते हुए एक पास्टर कहते हैं- हम तो सिर्फ प्रेयर करते और मसीह पर यकीन करने कहते हैं. कभी जरूरत पड़ी तो एजेंट्स से बात करवा देंगे, इससे ज्यादा कुछ नहीं.
पंजाब की NRI बेल्ट कपूरथला में जसप्रीत जैसे चेहरे आम हैं. राह चलते बात कीजिए और किसी न किसी अब्रॉड रिटर्न या विदेशी सपने देखती आंखों से टकरा जाएंगे.
कुलविंदर ऐसी ही महिला हैं. दो बार नाकामी के बाद उनके पति को अमेरिका जाने का मौका मिल गया. 21 दिन-रात के सफर के बाद वे पहुंचे तो लेकिन बसने से पहले ही उखड़ने का खतरा सिर पर डोलने लगा.
वे याद करती हैं- हम वायरस (कोरोना) के पहले से ही कोशिश कर रहे थे. पति का परिवार वहीं है. पहले हमने कनाडा का वीजा लगाया. वो रिजेक्ट हो गया तो यूके की तैयारी की. छह महीने का वीजा लग गया.
साल 2022 की बात है. हम सामान बांध-बूंधकर दिल्ली पहुंचे. वहां इमिग्रेशन वालों ने धर लिया. हमने इंग्लैंड के बाद मैक्सिको का वीजा भी ले रखा था. अफसर को शक हो गया कि ये डंकी रूट से अमेरिका जा सकते हैं. पूछताछ हुई और हम एयरपोर्ट से ही घर लौट आए.
एजेंट से सलाह-मश्विरा कर फिर हमने दुबई का रास्ता पकड़ा. वहां भी सवाल-जवाब. मैं परेशान हो गई. इतना लोन ले रखा था. घर-खेत गिरवी रखे हुए हैं. जाएंगे नहीं तो पैसे डूब जाएंगे. मैंने जोर लगाया.
इस बार एजेंट ने सऊदी की रूट से मेरे हसबैंड को नीदरलैंड भेजा और वहां से कुछ रोज मैक्सिको में बिताकर सीधे अमेरिका. इस सबमें 21 दिन लगे.
आपको चिंता नहीं हुई! डंकी रूट तो सुना काफी खतरनाक है.
डंकी के रास्ते ये तो होता ही है. मेरे खुद के देवर छह महीने लगाकर अमेरिका पहुंचे थे.
आप क्यों नहीं गईं?
उनको दो-तीन साल हो जाएं तो मैं भी निकल जाऊंगी. कहीं न कहीं जाना ही है. कनाडा नहीं तो अमेरिका. वो भी नहीं बनता तो हमने जर्मनी और माल्टा की भी बात कर रखी है.
सुना है, अमेरिका में थोड़ी गड़बड़ चल रही है!
‘हां, ट्रंप नाराज हैं.’ कुलविंदर टॉप अमेरिकी लीडर का नाम ऐसे लेती हैं, जैसे किसी घरेलू सदस्य की बात कर रही हों. ‘पति का फोन आया था. परेशान हैं कि रेड पड़ेगी तो फिर बड़ा खर्च होगा. असल में वो एक पंप पर काम करते हैं. ट्रंप को पता लग गया कि मालिक ने इललीगल बंदों को काम पर रखा हुआ है तो वो पंप सील करवा देगा. वहां ऐसा ही होता है. वैसे वहां भी हमारे एजेंट हैं जो पहले से तैयारी रखते हैं.’
कैसी तैयारी?
शहर से बाहर बेसमेंट में जगह मिल जाती है. कुछ दिन वहीं रहिए. जब मामला ठंडा पड़े, तब बाहर आइए. बस, इसमें बहुत पैसे लगते हैं. और डंकी रूट जितना ही खतरा भी है. सोचिए कि किसी की इजाजत के बगैर आप उसके घर घुस जाएं. ऐसे में क्या-क्या हो सकता है. हम सारी जमापूंजी लगा चुके. अब जो हो, लौटना नहीं है. पति को मैं यही समझा रही थी.
बाहर जाने में लगभग कितने पैसे लग जाते हैं?
सबका अलग-अलग रेट है. सीधे-सीधे तो कोई देश बुलाएगा नहीं. टेढ़े रास्तों पर चलने की कीमत भी भारी है. सिंगल बंदे के अमेरिका जाने के 40 लाख लग जाएंगे. इसके बाद भी पेट भले खदबद करता रहे, लेकिन वकील की जेब भरनी पड़ती है. फिर खुद का भी खर्च रहेगा. दो-एक साल तो पैर सिकोड़ते ही बीत जाते हैं. इसके बाद भी गारंटी नहीं, लेकिन हम पंजाबी तो रिस्क लेते ही हैं.
रिस्क लेकर कुछ बड़ा पाने की ये कोशिश पंजाबी गानों तक में दिखती है. सिद्धू मूसवाला का एक गाना था- तैनूं पता, ये है ब्रैम्पटन, वेयर एर्वीथिंग एंड एनीथिंक कैन हैप्पन!
ये ग्रेट पंजाबी ड्रीम है, जिसे जीने के लिए स्टूडेंट्स ही नहीं, मिडिल एज लोग भी जा रहे हैं. फिर भले ही देहरी छूकर लौटना पड़े.
फगवाड़ा के फिटनेस कोच सुमीत सिंह इसी बिरादरी से हैं.
वे याद करते हैं- बंदा बहुत कुछ सोचकर जाता है, लेकिन आज जो माहौल है, वहां सर्वाइव करना बहुत मुश्किल है. कनाडा में आबादी बहुत हो चुकी. पंजाबी भी हैं, हरियाणवी भी और गुजराती भी. कई लोग विजिट वीजा पर जाते हैं और चुपके से वहीं रह जाते हैं.
लोग ज्यादा और काम कम. फिलहाल वहां जो मिनिमम वेज है, हम इंडियन्स को उसकी आधे से भी कम तनख्वाह मिल रही है. उसमें भी लड़ाई. जैसे पहले से भरी बस में लोग नए आदमी को देखते हैं, वैसा ही गुस्सा वहां नए पहुंचे लोगों को लेकर है. पुराने उन्हें कंपीटिशन मानते हैं.
सबसे ज्यादा मुश्किल लड़कियों के लिए है. 18 साल की हुई नहीं कि पेरेंट्स जबर्दस्ती बाहर भेज देते हैं ताकि पीछे से वे भी आ सकें.
दबाव में वो पहुंच तो जाती है लेकिन वहां रहे कैसे! पहली इंस्टॉलमेंट के बाद घरवाले पैसे भेजना बंद या कम कर देंगे. लड़कियां रूम रेंट से बचने के लिए सड़कों पर मेल पार्टनर खोजती फिरती हैं. खुद मेरे साथ ये हो चुका.
गुरुद्वारे में सेवा कर रहा था, जब एक लड़की मिली. वो चाहती थी कि मैं उसे अपने कमरे में रख लूं. तीन महीने पहले उसका काम चला गया था. गुरुद्वारे में वो तीन टाइम खाना तो खा लेती थी, लेकिन रहने को जगह नहीं थी. ऐसी एक नहीं, बहुत सी लड़कियां हैं, जो दो-दो अनजान लड़कों के साथ एक रूम में रहने को राजी हैं.
आप कैसे वहां पहुंचे?
इनफ्लूएंस में. इंस्टाग्राम पर लोग रील्स डालते. बढ़िया जगहें. बढ़िया कपड़े. मैं कभी बाहर गया नहीं था. झोंक में आ गया.
गया तब पता लगा कि हफ्तों मजदूरों की तरह काम करने के बाद लोग फोटो डालते हैं. असल जिंदगी तो कुछ और ही है. मुझे जिसने बुलाया था, वही कन्नी काटने लगा. पूरी कीमत लेकर आधा-अधूरा बेसमेंट दे दिया. छत पर गीजर, हीटर सब दिखते. रात लेटता तो आंखें खुली ही रहतीं कि कहीं कुछ फट न जाए. कभी हीटर बंद हो जाता, कभी वाई-फाई. शिकायत करो तो मकान-मालिक, जो अक्सर पंजाबी ही होता, भड़क जाता. आप बीमार हों, या मर जाएं, कोई नहीं पूछेगा. थककर मैं पौने दो महीने में लौट आया.
आपके साथ और लोग भी लौटे होंगे!
बहुत से लोग भारी कर्ज लेकर गए हैं. अब वो वापस नहीं आ सकते. एक देश से भगाए जाएं तो दूसरी जगह पहुंच जाएंगे. छुटपुट काम करेंगे लेकिन रहेंगे वहीं. जो लोग 20-25 लाख का झटका सह सकते हैं, वे लौट रहे हैं. मेरे साथ ही कई ऐसे बच्चे लौटे, जो स्टूडेंट वीजा पर गए थे.
सारी बातचीत के बीच लगातार इमिग्रेशन कंसल्टेंट्स का जिक्र आ रहा था. कपूरथला में हमने एक ट्रैवल कंपनी के मालिक अश्विनी शर्मा से मुलाकात की, जो 16 सालों से इसी पेशे में हैं.
वे कहते हैं- यूएस और कनाडा को लेकर मार्केट में जो बात चल रही है, उससे स्टूडेंट वीजा पर काफी असर पड़ा. अकेले फगवाड़ा में पहले इसी वीजा पर हर महीने तीन से साढ़े तीन सौ बच्चे बाहर जाते थे. अब सिर्फ 20 से 30 वीजा एप्लिकेशन लग रहे हैं. इसमें भी आधे से ज्यादा रिजेक्ट हो जाते हैं. आजकल बच्चे दूसरे देश भी जा रहे हैं, लेकिन वहां सक्सेस रेट बहुत कम है.
कनाडा अब तक क्यों हॉट डेस्टिनेशन बना रहा?
पंजाब से पढ़ने के लिए गए बच्चे वहां साथ में काम भी करने लगते. फिर वर्क परिमट पीआर (परमानेंट रेजिडेंसी) में बदल जाता. यहां का बच्चा-बच्चा पूरी प्रोसेस जानता है. वहां जाकर काम के लिए भी लोग उतने सिलेक्टिव नहीं रहते. कुछ भी कर लेते हैं. कोई देखने-टोकने वाला नहीं. अभी जो सख्ती हुई, उसके बाद नया पैटर्न बन रहा है. बच्चे गैप लेकर पढ़ाई कर रहे हैं. जैसे छह महीने क्लास और छह महीने काम ताकि खर्च निकाल सकें. कई लोग सीधे वर्क वीजा पर भी जा रहे हैं.
लेकिन वर्क परमिट मिलना इतना आसान है क्या!
इसमें भी गड़बड़झाला है. अश्विनी समझाते हैं- भारत से सालों पहले गए कई लोग वहां कारोबार जमा चुके. वे सरकार को दिखाते हैं कि हमें फलां-फलां स्किल वाले वर्करों की जरूरत है, जो कनाडा में नहीं मिल रहे. सरकारी इजाजत लेकर वे भारत आते, और यहां से बंदों को ले जाते हैं. इस साथ ले जाने के बदले वे भारी रकम वसूलते हैं, जैसे 40 से 50 हजार डॉलर. रकम बड़ी तो है, लेकिन बाहर जाने के लिए लोग घर-बार सब बेच रहे हैं.
क्या रिवर्स माइग्रेशन भी हो रहा है?
अच्छा-खासा. खासकर स्टूडेंट्स का. जिन पेरेंट्स के पास सरप्लस पैसे हैं, वे अपने बच्चों को बुला रहे हैं. केवल वही बाकी हैं, जिनपर ज्यादा लोन है. ऐसे लोगों का गलत इस्तेमाल भी हो रहा है.
गलत इस्तेमाल की डिटेल देने को अश्विनी राजी नहीं, लेकिन एक और ट्रैवल एजेंट से मिलने पर कुछ अलग ही पता लगता है.
पहचान छिपाने की शर्त पर कंसल्टेंट बताता है- एक खास धर्म के लोगों को यूरोप में आसानी से वीजा मिल रहा है. बाहर जाने को उतावले लोग उस धर्म से जुड़ जाते हैं और फिर केवल आईडी और एक पर्चे के सहारे समंदर लांघ लेते हैं. ऐसा ही एक बंदा मेरे पास भी आया था. डॉक्युमेंट्स न दिखने पर मैंने उसे लौटा दिया लेकिन हफ्तेभर के भीतर उसका सारा काम हो चुका था.
पंजाब के कई जिलों में ऐसे पोस्टर दिख जाएंगे जो कंसल्टेंट की बातों से मेल खाते हैं. एक खास आस्था वाले लोगों को धड़ल्ले से वीजा मिल रहा है. ये बात वे लोग खुद अपनी टेस्टिमोनी में कहते हैं.
कनाडा-अमेरिका में सख्ती का आपके पेशे पर क्या असर हुआ?
स्टेट के कई प्रोफेशन इसकी जद में आए. 50 प्रतिशत से ज्यादा IELTS (इंटरनेशनल स्टूडेंट्स को अंग्रेजी सिखाने वाले) सेंटर बंद हो चुके. पहले इसकी तैयारी कराने वाले टीचर खोजना बड़ी चुनौती हुआ करती थी. अब एक एड लगाएं और 40 एप्लिकेशन आएंगे. अपनी बात करूं तो इमिग्रेशन कंसल्टेंसी घटकर 10 फीसदी रह गई. अब हम कोशिश में हैं कि जो बच्चे दो-तीन सालों से बाहर हैं, उनके घरवालों को उस देश घूमने के लिए भेज सकें. लेकिन ये न तो आसान है, न प्रॉफिट देने वाला.
वीजा एजेंट ही हमारी एक और बच्चे से मुलाकात करवाता था. बीसेक साल का लड़का. लगभग सालभर बाद लौट आया. लॉन्ग लीव. वो कहता है – हम रिश्तेदारों को यही बता रहे हैं, वरना चार लोग चार बातें बनाएंगे.
लौटे क्यों?
घर में बहुत से लोग फॉरेन रिटर्न्ड हैं. पैसे थे. शौक-शौक में पापा ने मुझे भी भेज दिया ताकि कहने को ठप्पा तो लग जाए.
लेकिन लौटना क्यों हुआ?
मन नहीं लगा. लगातार अंग्रेजी चुभलाता ये युवक कैमरा देखते ही कहता है- आपको बताया तो, छुट्टी पर आया हूं.
इस युवक के पासपोर्ट ही नहीं, कनाडा का ठप्पा पंजाब के लगभग हर जिले, हर मकान पर लगा है. चाहे वो बेगोवाल के आसमान में उड़ती कनाडियन पतंग हो, या जालंधर में जंग खाती कारें और धूल फांकते मकान.
(अनुरोध पर कुछ लोगों की पहचान छिपाई गई है.)