CBFC – 125 साल पहले लगी आग ने कैसे कटवा दिए विक्की कौशल-तृप्ति डिमरी के किसिंग सीन? ये है सेंसर की कैंची का इतिहास – 125 year old fire accident in paris lead to cbfc trimming vicky kaushal tripti dimri kissing scene read history of film censorship ntcpsm

CBFC – 125 साल पहले लगी आग ने कैसे कटवा दिए विक्की कौशल-तृप्ति डिमरी के किसिंग सीन? ये है सेंसर की कैंची का इतिहास – 125 year old fire accident in paris lead to cbfc trimming vicky kaushal tripti dimri kissing scene read history of film censorship ntcpsm

पिछले साल आई फिल्म ‘बैड न्यूज’ से जुड़ी एक खबर बहुत चर्चा में रही थी. सेंसर बोर्ड ने फिल्म में विक्की कौशल और तृप्ति डिमरी के तीन किसिंग सीन काटकर करीब 27 सेकंड छोटे किए थे. सेंसर बोर्ड पहले भी फिल्मों में कई ‘आपत्तिजनक’ सीन्स कटवाता रहा है. कंगना रनौत की फिल्म ‘इमरजेंसी’ भी सेंसर बोर्ड के पचड़े में ऐसी फंसी थी कि शिड्यूल डेट पर रिलीज ही नहीं हो सकी. फिल्म के मेकर्स और सेंसर बोर्ड का विवाद लगातार खबरों में बना हुआ था. 

फिल्मों की सेंसरशिप और फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन का टकराव अक्सर बहसों में बना रहता है. सेंसर बोर्ड फिल्म में कुछ कट्स लगाने की सलाह देता है और फिल्ममेकर्स इसे अपनी आजादी पर लगाम लगाने की कोशिश बताते हैं. मगर क्या आप जानते हैं कि ये खेल आखिर शुरू हुआ कैसे? सिनेमा पर सेंसर बोर्ड की कैंची चलनी कब शुरू हुई? इस पूरे मामले की जड़ में आग लगने का एक ऐसा हादसा है जो 125 साल से भी पहले हुआ था. इस हादसे ने सेंसरशिप की वो नींव रखी, जिसकी वजह से आज भारत समेत कई देशों के फिल्म सेंसर बोर्ड, फिल्मों पर कैंची चलाते रहते हैं. चलिए बताते हैं क्या है सिनेमा में सेंसरशिप का इतिहास… 

क्रेडिट: सोशल मीडिया

पेरिस के एक चैरिटी इवेंट में लगी वो ऐतिहासिक आग
फ्रांस के एलीट लोगों ने 1885 में एक चैरिटी इवेंट शुरू किया था, जिसे Bazar de la Charité कहा जाता था. अलग-अलग लोकेशंस पर होने वाले इस इवेंट में हुई कमाई को चैरिटी के कामों में खर्च किया जाता था. 1897 में ये इवेंट फ्रांस की राजधानी, पेरिस के एक हिस्से में चल रहा था. इवेंट को एक मध्यकालीन स्ट्रीट की थीम देने के लिए लकड़ी, कार्डबोर्ड और कपड़ों वगैरह की मदद से एक वेयरहाउस जैसा स्ट्रक्चर बनाया गया था. 

आज हम जिसे सिनेमा कहते हैं वो मूव करने वाली इमेज की शक्ल में, अस्तित्व में आने लगा था. आगे क्या हुआ वो जानने से पहले एक बार सिनेमेटोग्राफ का बेसिक समझ लेते हैं. मोटा-मोटा समझें तो एक फिल्म रील पर इमेज रिकॉर्ड होती थीं. फिर लाइमलाइट को लेंस की मदद से इमेज पर इस तरह फोकस किया जाता था कि रील पर रिकॉर्ड इमेज, सामने स्क्रीन पर साफ तरीके से प्रोजेक्ट हो. इसमें वैसे तो कई अलग-अलग डिवाइस और इक्विपमेंट लगते थे, मगर पूरे सेटअप को सिनेमेटोग्राफ कहा जाता था. आज इसी सेटअप को सिनेमा कहते हैं. 

शुरुआत में इमेज रिकॉर्ड करने के लिए जो फिल्म इस्तेमाल होती थी वो नाइट्रेट की होती थी. ये ऐसा मैटेरियल था जो बहुत ज्वलनशील होता है और बहुत ज्यादा हीट होने पर खुद ही जलने लगता है, किसी लौ की जरूरत ही नहीं पड़ती. ऊपर से प्रोजेक्शन के लिए जो लाइमलाइट इस्तेमाल होती थी, उसमें खुद में बहुत ताप होता था. इस पूरे सिस्टम में हीट कंट्रोल करना तब बहुत बड़ा चैलेंज था, जिसके फेल होने की वजह से ही करीब 100 साल पहले सिनेमा में आग लगने की घटनाएं बहुत ज्यादा होती थीं. 

तो, 1897 में पेरिस के Bazar de la Charité इवेंट में एक सिनेमाटोग्राफ इवेंट की हाईलाइट था. अबतक लोगों ने ठहरी हुई तस्वीरें ही देखी थीं और अब मूव करने वाली इमेज देखने के लिए लोग एक्साइटेड थे. ये इवेंट किस तरह के स्ट्रक्चर में हो रहा था, ये आप ऊपर जान ही चुके हैं. दोपहर में सिनेमाटोग्राफ के इक्विपमेंट ने आग पकड़ ली. लकड़ी का वो वेयरहाउस ऐसी किसी घटना के लिए तैयार ही नहीं था. 

आग लगी तो भगदड़ मच गई, लोग बचकर भागने की कोशिश करने लगे मगर एग्जिट भी कम पड़ने लगीं. ऑफिशियली इस घटना में मरने वालों का आंकड़ा 126 तक पहुंचा, जिसमें शाही और एलिट परिवारों के कई लोग शामिल थे. जल चुके लोगों के अवशेषों का हाल ऐसा था कि कई लोगों को पहचानने के लिए उनके डेंटल रिकॉर्ड मिलाने पड़े, जो फॉरेंसिक में एक नया लैंडमार्क बना.

सेंसरशिप को कैसे मिला कानूनी आधार
1897 के हादसे के बाद लंदन सिटी काउंसिल ने लाइसेंस प्राप्त थिएटर्स के लिए आग से जुड़े कई रेगुलेशन तय किए. यही रेगुलेशन यूके में 1909 के सिनेमेटोग्राफ एक्ट का आधार बने. इस एक्ट में सिनेमा थिएटर्स की बिल्डिंग, प्रोजेक्टर रूम और तमाम चीजों के लिए नियम तय किए गए थे. अथॉरिटीज ने इस एक्ट का इस्तेमाल मनमाने तरीके से भी किया और थिएटर्स को लाइसेंस देने के लिए जो नियम बने उनमें से एक ये भी था कि संडे को थिएटर्स नहीं खुलेंगे. 

साउथ लंदन में दो थिएटर्स- लंदन ब्रिज पिक्चर पैलेस और सिनेमेटोग्राफ थिएटर- के मालिक ने 27 फरवरी 1910 को, संडे के दिन अपने थिएटर खोलकर, लाइसेंस वाले नियम का उल्लंघन कर दिया. लंदन सिटी काउंसिल (LCC) ने थिएटर मालिक को कोर्ट में घसीटा तो उसने दलील दी कि सिनेमेटोग्राफ एक्ट1909 का उद्देश्य सिनेमा थिएटर्स के ‘स्वास्थ्य और सुरक्षा’ को सुनिश्चित करना है और प्रशासन को सिनेमा लाइसेंस के लिए थिएटर्स से असंबंधित नियम बनाने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है. लेकिन कोर्ट ने इस दलील को रिजेक्ट कर दिया, फैसला LCC के पक्ष में रहा. कोर्ट के फैसले ने ये उदाहरण सेट कर दिया कि सिनेमा लाइसेंस पर लगे प्रतिबंध केवल केवल आग से सुरक्षा तक सीमित नहीं हैं. 

इसका फायदा उठाकर यूके में अलग-अलग अथॉरिटीज ने फिल्मों का कंटेंट सेंसर करना शुरू कर दिया. फिल्म इंडस्ट्री के लिए परेशानियां खड़ी हो गईं. इस मामले के बाद का गणित ही 1912 में ब्रिटिश बोर्ड ऑफ फिल्म सेंसर (BBFC) के गठन की वजह बना. ये एक प्राइवेट कंपनी थी जिसने पूरे देश में फिल्म सेंसर के एक समान नियमों के आधार पर फिल्मों को सर्टिफिकेट देना शुरू किया. BBFC का खर्च उसी फीस से निकलता था जो फिल्ममेकर्स अपनी फिल्म को सर्टिफिकेट दिलाने के लिए भरते थे. 

लोकल काउंसिल नियम बनाने लगीं कि अब सिनेमा का लाइसेंस उन्हीं थिएटर्स को मिलेगा जो BBFC से सर्टिफिकेट प्राप्त फिल्में चलाएंगे. उधर लंदन में ये सब चल ही रहा था और इधर ब्रिटिश राज की छतरी तले भारत में सिनेमा पॉपुलर होने लगा था. पहले तो विदेशी फिल्में ही थिएटर्स में पहुंच रही थीं, लेकिन 1913 में भारत की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ भी थिएटर्स में पहुंच चुकी थी. 

भारत में कैसे शुरू हुई फिल्म सेंसरशिप
पहली फिल्म आने के बाद भारत में भी सिनेमा का क्रेज तेजी से बढ़ने लगा. ब्रिटिश शासन को ये खतरा भी था कि भारतीय फिल्ममेकर्स सिनेमा के जरिए जनता में आंदोलन खड़ा कर सकते हैं. दूसरी तरफ ये सिनेमा के बाजार पर अपना नियंत्रण रखने का भी मौका था. उधर यूके में BBFC के काम करने के तरीके से फिल्ममेकर्स परेशान थे और चाहते थे कि सेंसर के नियम स्पष्ट हों. 1916 में यूके ने एक नया संगठन बनाया ‘नेशनल काउंसिल ऑफ पब्लिक मोरल्स’, जिसका मूल एजेंडा बदलते हुए समाज में पारिवारिक जीवन और सेक्सुअल बिहेवियर में ‘पारंपरिक नैतिक बर्ताव’ बचाए रखना था. 

इस संगठन ने एक सिनेमा कमीशन ऑफ इन्क्वारी बनाया, जिसने फिल्मों में कट लगाने का आधार तय करने पर जोर दिया. 1916 में ही टी.पी. ओ’कॉनर BBFC के प्रेजिडेंट बने और उन्होंने बोर्ड की पिछली रिपोर्ट्स के आधार पर 43 नियम बनाकर सिनेमा कमीशन को सौंप दिए. भारत और अपने अधीन बाकी देशों के लिए ब्रिटिश सिस्टम का डर, इस लिस्ट के 21वें और 22वें नियम में नजर आया.

21वां नियम के अनुसार, सेंसर बोर्ड फिल्मों के वो सीन काट सकता था जिनमें- ब्रिटेन के राजा की वर्दी का उपहास उड़ाया गया हो या अपमान किया गया हो.

22वें नियम में उन सीन्स पर सेंसरशिप थी जिनमें- भारत से जुड़े मुद्दों से डील किया गया हो, ब्रिटिश ऑफिसर्स, भारतीय राज्यों की बुरी छवि गढ़ी गई हो या उन्हें देशद्रोही दिखाया गया हो, या जिनमें ब्रिटिश एम्पायर के अंदर ब्रिटिश सम्मान का अपमान दिखाया गया हो.

इन सुझावों के आधार पर 1917 में इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में एक बिल पेश हुआ, जिसमें ‘भारत में सिनेमेटोग्राफ की लोकप्रियता और ऐसे प्रदर्शनों की बढ़ती संख्या’ को नोट किया गया. बिल में एक ऐसा कानून बनाने का सुझाव दिया गया जो सुरक्षा के साथ-साथ ‘अभद्र या आपत्तिजनक चित्रण से सुरक्षा’ सुनिश्चित करे. और इस तरह भारत में सिनेमेटोग्राफ एक्ट 1918 के साथ-साथ फिल्म सेंसरशिप अस्तित्व में आ गई. 

इस एक्ट के तहत डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट को ये पावर मिली कि वो ‘सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए अनुकूल’ फिल्मों को सर्टिफिकेट दे सकता है. इसी आधार पर 1920 से बॉम्बे, मद्रास, कलकत्ता, रंगून और लाहौर (1927) के सेंसर बोर्ड अस्तित्व में आए. कानून में ये स्पष्ट नहीं था कि ‘सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए अनुकूल’ फिल्में होती क्या हैं. बॉम्बे बोर्ड ने ये सिद्धांत बनाया कि साधारण रूप से कोई सख्त सेंसरशिप लागू नहीं की जाएगी. मगर इन मखमली शब्दों के साथ बोर्ड ने फिल्मों को सेंसर करने के लिए वही 43 नियम रख दिए जो उधर लंदन में ओ’कॉनर ने BBFC के लिए बनाए थे. 

ब्रिटिश सरकार को लगा भारत में फिल्मों से क्रांति होने का डर
एक तरफ भारत में सेंसरशिप शुरू हो चुकी थी और दूसरी तरफ 1920 में ही महात्मा गांधी ने भारत की ब्रिटिश सरकार के खिलाफ असहयोग आंदोलन छेड़ दिया था. 1919 में जलियांवाला बाग कांड हो चुका था और भारत की आम जनता में इस घटना का गुस्सा अभी जिंदा ही था. आजादी के आंदोलन जोर पकड़ने लगे थे, गिरफ्तार हो रहे क्रांतिकारियों से जेलें भरने लगी थीं. 

तीसरा पक्ष भारत में आ रहे दूसरे सिनेमा का भी था- अमेरिकन फिल्में भी भारत पहुंचने लगी थीं और इनमें अक्सर ब्रिटिश समाज का मजाक उड़ाया जाता था. दूसरी तरफ ब्रिटेन की फिल्मों में ही उनके सामाजिक, पारिवारिक और निजी रिश्ते जिस तरह नजर आते थे, भारतीय नैतिकता के आगे उनके कमजोर दिखने का भी डर था. 

द वेस्टमिन्स्टर गैजेट के एक आर्टिकल की कुछ लाइनें इस तरह थीं- ‘… (हमारी फिल्मों में) बेईमान पत्नियां और अनैतिक पति, अपने वादों से आसानी से मुकर जाना और कानूनों के प्रति असम्मान वाला दमदार ड्रामा स्क्रीन पर देखकर, वे हमारी नैतिकताओं को लेकर अपनी धारणा बनाते हैं. वे पूरा वक्त इससे प्रभावित रहते हैं और ये हैरानी की बात नहीं होगी अगर उनमें इस प्रभाव का असर बाहर निकलकर आने लगे. एक ब्रिटिशर के लिए भारत में अपना आत्मसम्मान बचाए रख पाना और ऐसी नैतिकता की बड़ाई करना या लोगों को सिखाना बहुत मुश्किल है, जिसकी अवहेलना वो हमारी फिल्मों में, हमारे ही नागरिकों द्वारा होते देखते हैं.’  

1920 में आई बायोस्कोप मैगजीन की एक रिपोर्ट भारतीय सिनेमा में रेगुलेशन लगाने की वकालत करते हुए कहा गया, ‘कई शिकायतों में ये सामने आया है कि भारत में ऐसी फिल्में इम्पोर्ट की जा रही हैं जो यूरोपियन्स का अपमान करती हैं और इनकी वजह से क्षेत्रीय जनता हमारी श्वेत महिलाओं को कमतर समझते हैं.’ 

इन्हीं सब चिंताओं को देखते हुए भारत की ब्रिटिश सरकार ने 1927  में सिनेमा पर एक फैक्ट-फाइंडिंग कमेटी बनाई- इंडियन सिनेमेटोग्राफ कमेटी (ICC). इस कमेटी ने पहली बार भारत में एक सेंट्रल सेंसर बोर्ड और U-A रेटिंग सिस्टम के सुझाव दिए थे. हालांकि, इस कमेटी के सुझाव लागू नहीं हुए मगर कमेटी ने रिपोर्ट के लिए जो सर्वे और इंटरव्यू किए वो भी काफी दिलचस्प थे. लाला लाजपत राय ने कहा था कि उन्हें चार्ली चैप्लिन नहीं पसंद हैं, जबकि महात्मा गांधी ने कहा कि उन्हें सिनेमा ही अच्छा नहीं लगता. 

ऐसा नहीं था कि तब भारतीय सिनेमा अपने आप को ऑनस्क्रीन प्रेम-प्रदर्शन से बचा रहा था. 1930 में आई फिल्म ‘हमारा हिंदुस्तान’ में सुलोचना और जल मर्चेंट का इंटिमेट सीन पर्दे पर आ चुका था. 1932 में आई ‘जरीना’ में जल मर्चेंट और जुबैदा के ढेर सारे किसिंग सीन थे. अलग-अलग सोर्स इनकी गिनती 48 और 82 तक बताते हैं, मगर सबसे छोटा आंकड़ा 32 है. 1933 में आई ‘कर्मा’ के बारे में रिपोर्ट किया गया कि इसमें देविका रानी और हिमांशु राय ने 4 मिनट लंबी किस की है. हालांकि, देविका रानी के जीवन पर अपनी किताब में किश्वर देसाई ने लिखा है कि वो एक किस नहीं थी, एक सीरीज में कई किस थीं. एकसाथ जोड़ने पर भी सबका कुल समय लगभग 2 मिनट के करीब ही बनता है. ये फिल्में तब के समय में भी सेंसर के लफड़े में नहीं फंसीं क्योंकि सेंसर को असली दिक्कत प्रेम प्रदर्शन नहीं, देशभक्ति प्रदर्शन से थी.

ब्रिटिश अफसरों की कमियों, इंडियन नेशनल कांग्रेस, स्वराज या दूसरे देशों में हो रही क्रांतियों का जिक्र भी भारत में फिल्म पर कैंची चलवा सकता था. बल्कि सीधा बैन लगने के चांस ज्यादा थे. जैसे मेक्सिको में स्वराज के संघर्ष की कहानी दिखाने वाली फिल्म ‘जुआरेज’ (1939) को बंगाल के सेंसर बोर्ड ने बैन कर दिया था. 

उस समय फिल्मों के शुरू होने से पहले बड़ी खबरों वाली एक न्यूज रील चलाई जाती थी. इसमें सरकार द्वारा प्रायोजित खबरें जनता को दिखाई जाती थीं, जबकि देश के स्वतंत्रता सेनानी, जो उस वक्त सबसे ज्यादा खबरों में रहते थे, उनका नाम न्यूज रील से दूर रखा जाता था. फिल्म इंडिया जर्नल ने 1945 में शिकायत करते हुए नोट किया कि फिल्मों से, फ्रेम में लगे भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों के फोटो भी हटवा दिए जाते थे. 

महात्मा गांधी के नाम भर से फिल्मों पर चल जाती थी कैंची
एक नाम के लिए सेंसर बोर्ड की कैंची हमेशा तैयार रहती थी- महात्मा गांधी. जर्नल ऑफ द मोशन पिक्चर सोसाइटी ऑफ इंडिया (1937) में महात्मा गांधी की उन न्यूज रील्स की पूरी लिस्ट है जिन्हें बैन कर दिया गया. इतना ही नहीं, भारत में बैन हुई पहली फिल्म ‘भक्त विदुर’ (1921) से ब्रिटिश अफसरों को दिक्कत ही यही थी कि इसका हीरो गांधी जैसा दिख रहा था. उसने गांधी टोपी लगाई थी, खादी के कपड़े पहने थे और चरखा चला रहा था. तमिल फिल्म ‘त्यागभूमि’ (1939) को भी इसीलिए बैन किया गया क्योंकि इसके हीरो शंभू शास्त्री को ‘तमिलनाडु के गांधी’ के रूप में दिखाया गया था और फिल्म में गांधी के कुछ रियल लाइफ फुटेज थे. 

1940 के दशक में फिल्मों पर सेंसर और ज्यादा सख्त होने लगा. एक रिपोर्ट के अनुसार, 1943 में बॉम्बे सेंसर बोर्ड ने 1750 से ज्यादा फिल्में देखीं और उनमें से 25 में बदलाव सुझाए. जबकि 1948 में बोर्ड ने 450 से ज्यादा फिल्मों में बदलाव सुझाए. दूसरी तरफ फिल्ममेकर्स भी अपनी तरफ से सेंसर से बचने के लिए ट्रिक्स लगा रहे थे. जैसे- किस्मत (1943) के गाने ‘दूर हटो ऐ दुनियावालों हिंदुस्तान हमारा है’ में असली चेतावनी जर्मन और जापानी सेनाओं को दी जा रही थी. मगर ये तो दर्शक जानते ही थे कि फिलहाल देश से दूर किसे हटाना है. फिल्मों में ब्रिटिश सरकार की बजाय दूसरी शक्तियों को भारत पर आक्रमण करते दिखाया गया और फिल्म में जनता को एक्शन के लिए ललकारा गया. ये ललकार रियल लाइफ में कहां दिखानी है जनता जानती थी. 

इमरजेंसी में हुआ सेंसर बोर्ड का गलत इस्तेमाल
देश आजाद हुआ और 1949 से पूरे देश के लिए एक सेंसर बोर्ड और एक सेंसर कानून बनाने का काम शुरू हुआ. इस तरह 1952 का सिनेमेटोग्राफ एक्ट अस्तित्व में आया, जिसने सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सेंसर्स की नींव रखी. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जब इमरजेंसी लगाई तो बोर्ड ने अपने नाम में लगे ‘सेंसर’ शब्द को खूब सीरियसली लिया और अपनी शक्तियों के इस्तेमाल की नई लिमिट्स खोज निकालीं. 

इस दौर में गुलजार की फिल्म ‘आंधी’ और अमृत नाहटा की ‘किस्सा कुर्सी का’ बैन कर दी गईं. जबकि श्याम बेनेगल की ‘निशांत’ समेत कई और दूसरी फिल्मों को सेंसर बोर्ड की कैंची के आगे लोहा लेना पड़ा. इमरजेंसी के दौर में सेंसर बोर्ड पर लगे दाग मिटाने की नीयत से 1983 में जब सिनेमेटोग्राफी रूल्स में बदलाव हुए, तब इसका नाम बदलकर सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन कर दिया गया. यानी अब नाम में ‘सेंसर’ की जगह ‘सर्टिफिकेशन’ आ गया. नाम बदलने के बाद भी सेंसर बोर्ड कई फिल्मों पर कैंची चलाने के लिए फिल्ममेकर्स और अखबारों द्वारा घेरा गया. आज भी भारत के सेंसर बोर्ड के कामकाज की जड़ में असल में 1952 वाला सिनेमेटोग्राफ एक्ट ही है. इसमें सबसे ताजा बदलाव 2021 में हुआ. 

1952 वाले एक्ट में एक ट्रिब्यूनल (FCAT) की व्यवस्था थी. अगर फिल्ममेकर सेंसर बोर्ड के किसी फैसले से असहमत होते थे तो FCAT में अपील कर सकते थे. 2017 में जब सेंसर बोर्ड ने ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ पर बैन लगाया तो इसके मेकर्स FCAT जा पहुंचे थे, जहां बोर्ड का फैसला पलटते हुए बैन हटा दिया गया. 2021 में भारत सरकार ने द ट्रिब्यूनल रिफॉर्म्स बिल के जरिए, सेंसर के फैसले के खिलाफ अपील की अथॉरिटी सीधा हाई कोर्ट को बना दिया. यानी अगर कोई फिल्ममेकर सेंसर बोर्ड के फैसले से नाखुश है तो 2021 के बाद से उसे सीधा हाई कोर्ट जाना होगा. 

आलोचना इस फैसले की भी हुई और फिल्ममेकर हंसल मेहता ने अपनी सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा, ‘क्या हाई कोर्ट के पास फिल्म सर्टिफिकेशन की समस्याएं सुनने के लिए बहुत ज्यादा समय है? कितने फिल्म प्रोड्यूसर्स के पास कोर्ट तक जाने के साधन होंगे? FCAT को डिसकंटीन्यू करना बहुत बेतुका है और यकीनन बंदिशें लगाने वाला है. ये दुर्भाग्यपूर्ण टाइमिंग क्यों? ये फैसला लेने की जरूरत ही क्या थी?’ 

हंसल के साथ-साथ विशाल भारद्वाज और गुनीत मोंगा जैसे फिल्ममेकर्स ने भी सरकार के इस फैसले की आलोचना की थी. बोर्ड के नाम से ‘सेंसर’ तो 1983 में ही हटा दिया गया था. लेकिन ये अपनी ‘सेंसर बोर्ड’ वाली इमेज से बाहर नहीं निकल पाया है. क्या कोई दौर ऐसा आएगा जब फिल्ममेकर्स को CBFC से आजादी पर कैंची चलाने की शिकायत नहीं होगी? ये राज तो वक्त के खजाने में ही छुपा है, जो शायद भविष्य में कभी बाहर आएगा.

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